बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र
प्रश्न- चन्देरी साड़ी का इतिहास व इसको बनाने की तकनीक बताइए।
उत्तर -
मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले में चन्देरी कस्बा है। पहाड़ी की तलहटी में स्थित यह कस्बा एक प्राकृतिक खूबसूरती की कहानी कहता है। चन्देरी को आर्थिक एवं सामाजिक स्तर पर बुनकरों के कस्बे के नाम से जाना जाता है। ये बुनकर 'बधवा' कहलाते हैं। चन्देरी साड़ी का नाम इस स्थान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यहाँ की बुनी नाजुक साड़ियाँ उत्तर भारत में काफी लोकप्रिय हैं। इसे मुस्लिम व कोली समुदाय के बनुकर बनाते हैं। इन्हें आसावली साड़ियाँ भी कहते हैं।
इतिहास - चन्देरी एक पुराना कस्बा है जो कि चारों ओर से दर्शनीय स्थलों से घिरा है। मुगलकाल में चन्देरी साड़ी की तुलना महीन ढाका की मलमल से की जाती थी। स्थानीय बुनकरों के द्वारा जो किस्में बनायी जाती थीं। इसको बारीक 300° काउन्ट के कते हुए धागे से तैयार करने में बुनकर निपुण थे। इन बुनकरों के समूह को 'कतिया' कहते थे।
परवत्ती काल में चन्देरी साड़ी में मेनचेस्टर से आयात होने वाला मिल का धागा 120 - 200 काउन्ट का) प्रयोग होने लगा। जिसका चन्देरी वस्त्र उद्योग पर काफी प्रभाव पड़ा।
1930 के लगभग चन्देरी में जापानी सिल्क का प्रवेश हुआ जिसे ताने के रूप में काम लेने लगे व बाने में सूती धागा ही रहा। इन दोनों के मिश्रण से विभिन्न प्रकार की साड़ियाँ बनने लगीं।
इन साड़ियों में नाजुक सुनहरे धागों से चौखाने के रूप में पल्लू व बॉर्डर बुना जाता था। डिजाइन सीधी रेखाओं वाले और मुगलकालीन कला में मार्बल की पच्चीकारी होती थी। यह देखने में साधारण रत्नों की जड़ावट सी लगती है। यह साड़ी बहुत मुलायम, हल्की और अर्द्धपारदर्शी होती है।
चन्देरी तकनीक
चन्देरी साड़ी में पहले ताने व बाने में सूती धागों का प्रयोग होता था। बारीक सूती धागे की साइजिंग करने के लिए विशेष प्रकार की जड़ 'कोलीकान्दा' का प्रयोग करते थे। दो-तीन बार धागों पर यह क्रिया करने में धागों में गोलाई व मजबूती के साथ-साथ पॉलिश जैसी चमक आ जाती थी। ये बुनकर लगभग बारह साड़ी का ताना एक साथ तैयार करते थे एवं बाना दो या तीन साड़ी का तैयार करते थे।
इसके बाद सूती धागों को करघे पर चढ़ाकर कंघी से निकालते हैं। डिजाइन के लिए अतिरिक्त बाना और ताना का प्रयोग करते हैं। जटिल बुनाई के लिए दो बुनकरों की जरूरत होती है। पिट लूम की जगह आजकल फ्लाई शटल करघे का प्रयोग होने लगा है।
सन् 1940 तक चन्देरी साड़ी की सतह में प्राकृतिक पीला रंग का धागा होता था। फिर मिश्रा परिवार ने चन्देरी के बाने के धागों को रंगना शुरू किया। रंगे धागे दक्षिण से भी मँगवाये जाते थे। इसमें केसर से रंगी एवं सोने की जरी युक्त बॉर्डर का प्रयोग कर साड़ी बनाते थे जिसका उपयोग अधिकांशतः उच्च वर्ग की महिलाओं द्वारा किया जाता था। ग्राहक की माँग के अनुसार भी रंगाई कर साड़ी बनायी जाती थी। इन साड़ियों में सूती की जगह सिल्क आ जाने के कारण रासायनिक रंगों का प्रयोग होने लगा।
साड़ियों में प्रयुक्त जरी आगरा से मँगवायी जाती थी। चाँदी के तार पर सोने की पॉलिश की हुई जरी को सूती धागों पर लपेटा जाता था, जिसे 'कलावत्तु' के नाम से जाना जाता था। बॉर्डर व पल्लू में इस जरी का प्रयोग करते थे। बाद में सूरत की जरी का प्रयोग होने लगा।
रंग - चन्देरी में जो रंग प्रयोग किये जाते थे उनके स्थानीय नाम प्रकृति से लिये गये। * जैसे- केसरी, बादाम, अंगूरी, मोरगर्दनी, तोतई, मेंहदी, रानी, फालसा आदि। बॉर्डर में जरी के साथ लाल, बैंगनी, महरून, गुलाबी, हरे आदि रंगों का प्रयोग कर अलंकृत किया जाता है। साड़ी की मुख्य सतह का रंग हल्का पीला व अब धीरे-धीरे विभिन्न रंगों का प्रयोग होने लगा।
डिजाइन – चन्देरी में पारम्परिक डिजाइन में किनारी को बुना जाता था। पल्लू व किनारे पर विशेष रूप से चन्देरी में पंक्तिबद्ध डिजाइन चलता था जिसमें रुई, फूल, फूलदार, बतासा, चकरी, जई, कैरी, जूही फूल आदि डिजाइन मुख्य थे। चन्देरी साड़ी की पहचान बारीक जरी पट्टी की बुनाई से होती थी। चन्देरी साड़ी में रुई, फूल व चकरी बूटा बीस साल से डिजाइन में प्रयुक्त हो रहा है।
इन साड़ियों में बॉर्डर का विशेष महत्व होता था। इनके डिजाइन मुख्य रूप से हासिया किनारी, तीन किनारी, लहरिया, गोल किनारी, पान किनारी आदि से अलंकृत किया जाता है।
'दो चश्मी' साड़ी में दो तरफ किनारे अलग-अलग रंग के होते हैं। सतह में सूती व बॉर्डर में सिल्क धागों से साटिन बुनाई होती थी जिसे 'गंगा-जमुना' साड़ी के नाम से जाना गया। इसी तरह ताने में सिल्क व बाने में सूती धागों का प्रयोग कर बुनने वाली साड़ी को 'नीमरेशमी' नाम दिया। विशेष रूप से दुल्हन के दुपट्टा को पटला के नाम से जाना जाता था। जिसका उपयोग ओढनी के लिए किया जाता था। इसमें बूटी को सतह पर बुना जाता था। हैण्डलूम के आने से बूटों को नये-नये रूप में बनाया जाने लगा। इन बूटों में जरी का प्रयोग होने लगा जिससे साड़ी में आभूषणों जैसा प्रभाव दर्शित होने लगा इसमें कट वर्क का प्रयोग नहीं किया जाता है।
व्यापारिक केन्द्र– चन्देरी साड़ी से जुड़े व्यापारी, इनमें अधिकांश हिन्दू होते थे। जैन लोग यह व्यापार करते थे। विशेष रूप से कलकत्ता, बड़ौदा, पूना, सूरत, कोल्हापुर आदि में इसका व्यापार होता था। दक्षिण में इसके व्यापार को फेरीवालों के द्वारा फैलाया गया। चन्देरी साड़ी की लम्बाई 8 या 9 मीटर भी होती थी। इनका उपयोग महाराष्ट्रीयन महिलाओं द्वारा किया जाता है। आजकल चन्देरी में साड़ी के अलावा सलवार सूट, स्कॉर्फ आदि वस्त्र भी बनाये जा रहे हैं।
बनारस, कलकत्ता, सेलम आदि स्थानों पर आजकल इसकी नकल पर ही साड़ियाँ बनायी जा रही हैं।
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